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क्या कागजी कहानियों तक ही सीमित है ईमानदारी और लोकतन्त्र-राजीव अम्बिया

लोकतन्त्र

सरकार के नियमों की व्यवस्था जिसमे पूर्ण देश की जनसंख्या अपनी इच्छा से सरकार के गठन में भाग लेते हैं लोगों के चयन के द्वारा लोकतन्त्र का निर्माण होता है , लोकतन्त्र एक ऐसा प्रारूप यहाँ पर सरकार का गठन लोगों की इच्छा के अनुसार ही होता है, और होना भी यही चाहिए कि लोगों की विचारधारा ,विश्वास व ईमानदारी के अनुसार लोगों का चयन हो । पर क्या कागजी कहानियों तक ही सीमित है ,या फिर सच में यह होता है कि ईमानदार निष्ठावान व्यक्तित्व ही सरकार गठन व सरकारी तंत्र मे आते हैं ।

यह कहाँ तक सत्य है जब किसी व्यक्ति विशेष को अपनी इच्छा अनुसार किसी समर्थन करने पर रोक लगाई जाती है ,कोई भी ईमानदार व्यक्ति कैसे लोकतन्त्र मे आयेगा जबकि उसके आने या उसके सोचने मात्र पर लोग रोक लगाने कि कोशिश करते हैं या चाहते हैं ,अपने सीधे तौर पर धमकी भरे शब्दो में उसके विचारो को दबाने कि कोशिश कि जाती है ,क्या किसी भी व्यक्ति कि अपनी निजी राय नही होनी चाहिए ? क्यों उसकी अपनी राय या इच्छा पर प्रशंवाचक चिन्ह लगाए जाते हैं।

लोकतन्त्र तो लोगो कि विचारदारा के अनुसार होना चाहिए तो किसी के भी विचार पर रोक लगाने कि कोशिश क्यो कि जाती है ? हमारी विचारदारा में सबका विकास होना चाहिए सबको रोजगार के साधन होने चाहिए , मगर यह कुछ ही लोगों कि व्यक्तिगत फायदे का साधन बन कर रह गया है हर कोई दूसरे कि विचार दारा को दबाने कि कोशिश में लगा हुआ है ,यहाँ तक की किसी को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है पर वो लोग लोकतन्त्र को अपनी निजी संम्पत्ति समझने लगे रहे हैं वे सोचते हैं कि यह सिर्फ उनहो का एकाधिकारिक क्षेत्र है किसी और का नही ।

फिर एक आम आदमी कैसे इसमे प्रवेश कर सकता है क्या किसी लोकतंत्र मे सरकार निर्माण के लिए आगे आना है तो उसको अपनी ईमानदारी का त्याग करना पड़ेगा अन्य तरीकों का सहारा लेना पड़ेगा ,क्या यह सब देशहित में है? यदि नहीं तो ऐसा क्यों होता है? या हो रहा है क्यों किसी कि विचारदारा पर अंकुश लगाने कि कोशिश कि जा रही है? हम सबकी विचारदारा संगठित ,प्रगतिशील व देशहित कि होनी चाहिए इस तरह कि नहीं हाथी के दांत खाने के और हो, दीखाने के और ।

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